बरसात जा चुकी है
और आ गई है ठंड...
सिरहाने लटक रहा छाता
अब बेकार हो चुका है
ठीक वैसे ही,
जैसे किताबें हो चुकी हैं बेकार...
और रैक में पड़े-पड़े
फाँक रही हैं धूल,
कुर्सी महीनों से मेरे
बैठने का इंतजार कर रही है...
इतना ही नहीं,
आजकल अँधेरे से दोस्ती
इस कदर बढ़ गई है
कि लाइट का बिल भी कम आ रहा है...
निरर्थक लगती हुई
इन तमाम चीजों के बीच
सोना मजबूरी है कि जरूरी
कह नहीं सकता...!
हाँ इतना कह सकता हूँ कि
सुबह जब सूरज उगने को होगा
चिड़िया चहचहाएगी,
और बोलेंगे मुर्गे,
तो खुल जाएगी मेरी नींद,
और हड़बड़ाकर भागूँगा
ओस पड़ी हुई सड़कों पर...
क्योंकि चौराहे पर कर रहा होगा
कोई मेरा इंतजार,
बड़ी देर से...
इन तमाम निरर्थक चीजों को भूलते हुए,
दिन ऐसे ही गुजर जाएगा
हँसते-खिलखिलाते...
और फिर शाम को
अपने ही कान में धीरे से कहूँगा
कि, यही तो जीवन है दोस्त!
अधूरा, अधकचरा और अधखिला,
जो कभी पूरा ही नहीं होता...!